मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे
आज ना जाने क्यों हिंदी में लिखने का मन हो उठा। शायद पुराना समय याद करते करते यह भी याद आया की एक वक़्त अंग्रेजी परायी हुआ करती थी। IIT कानपुर मे एक मैगजीन छपती है Meander। पहली बार उसमें हिंदी में ही लेख लिखा था और कमाल देखिये वह पसंद भी किया गया। कुछ दिनों बाद अपना ब्लॉग लिखना शुरू किया पर जीवन जैसे आगे बढ़ा अंग्रेजी की प्राथमिकता आने लगी ।
अगर आपको लग रहा है की मैं यह लेख अपने हिंदी प्रेम के लिए लिख रहा हूँ तो ऐसा नहीं है। मैं तो सिर्फ जीवन के कुछ पुराने दिन फिर जीना चाहता हूँ। अभी डीएम दार्जिलिंग के राजसी घर में बैठा हूँ पर जाने क्यों याद आता है उस छोटे से शहर का वो घर जहाँ माँ सर्दियों की धूप में बाहर बैठाकर हिंदी पढ़ाया करती थी। माँ हिंदी की टीचर है और इसी साल रिटायर होगी।
क्या भूलूँ क्या याद करूँ की तर्ज़ पर बहुत सारे ख्याल समय और स्थान की सीमाओं को तोड़ते हुए चले आ रहे हैं। दादी की गोद में सुनी हुई वो लोरी और वो कहानियाँ , वो समय जब जीवन माँ से शूरु होता था और माँ पर ही खत्म और फिर युवावस्था में इंजीनियरिंग के लिए कोचिंगों के चक्कर।
वो दिन याद है जब IIT में सिलेक्शन हुआ पर उसके बाद IIT में पढाई की जगह याद है पीसीओ की वो लम्बी लाइन जिसमें पांच मिनट फ़ोन करने के लिए घंटों खड़े रहना पड़ता था। यह भी याद आता है की उन दिनों हम लेटर लिखा करते थे (जो अभी भी घर के किसी कोने में पुराने एलबम्स की तरह पड़े हैं)। आज के मोबाइल इंटरनेट और सोशल मीडिया में रचे बसे लोग वो दिन शायद ही समझ पायें। आईएएस में सिलेक्शन के बाद वो दिन याद हैं जब सेलिब्रिटी की तरह महसूस होता है। उतनी ख़ुशी तो शायद जीवन में कम ही नसीब होती है।
जीवन में सपने तब भी थे, सपने अभी भी हैं। दुनिया देखनी है, पढ़ना है, संगीत सुनना है, सीखना है, ग़ालिब, फैज़ और मीर जैसे शायरों को समझना है, शायद लिखते भी रहना है। कुछ सपने शुरू से ही आँखों में हैं पर कुछ नए हैं। इस बात पर ग़ालिब का यह शेर कैसे भूल सकता हूँ
‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले’
आप में से कई लोगों ने Ship of Theseus मूवी देखी होगी। इसका नाम एक फिलोसोफी के सिद्धान्त पर है की अगर एक नाव के धीरे धीरे कुछ पाटे बदलें जाएँ और एक समय बाद अगर नाव में कोई भी पुराना पटरा ना हो तो क्या वो वही नाव रहेगी या पूरी तरह से नयी हो जाएगी। मैं वही हूँ के बदल गया हूँ इस बात का जवाब आसान नहीं होगा।
आज ये लिखते हुए शिव कुमार बटालवी की यह पंजाबी नज़्म याद आ जाती है
'किन्नी बीती ते किन्नी बाकी है, मैनु एहो हिसाब लै बैठा'
आपने अगर इसे नहीं सुना है तो तुरंत youtube पर इसे जगजीत की आवाज़ में सुनें। जीवन के कई मलालों में सबसे बड़ा मेरे लिए जगजीत को कभी लाइव नहीं सुन पाना रहा है।
जीवन भी विचित्र है और अगर यह समझ में आ जाये की इसे क्या चाहिए तो समझिए आधी समस्या का समाधान हो गया। मैंने अपने काम और जीवन को अपने ब्लॉग से अलग रखने का निर्णय लिया था पर आज ऐसा लगा की कुछ दिल की बात भी लिखनी चाहिए। बचपन में गांधी जी की जीवनी पड़ता था, उसमें उन्होंने सूरदास की ये दो पंक्तियाँ हैं और मुझे अपनी स्थिति भी आज ऐसी ही महसूस होती है:
‘मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे
जैसे उडी जहाज को पंछी पुनि जहाज पे आवे’