Tuesday, December 29, 2015

एक दफा वो याद है तुमको?

एक दफा कुछ कर गुज़रने का जूनून सर पे चढ़ा. लाइन से तीन क्विज़ तेल करने के बाद मा बदौलत और उनके रूममेट ने प्रण किया की जब तक अपनी इज्जत रिडीम ना कर लें, ताश के पत्तों को हाथ ना लगायेंगे. Techkriti चल रही थी और हमने रोबोट्स की फुटबॉल प्रतियोगिता के लिए एक चमत्कारी रोबोट बनाने का निर्णय लिया. दो दिनों के नाईटआउट, पत्तों के बलिदान और अथक प्रयास के बाद हृतिक रोशन सी बॉडी वाला रोबोट इजाद किया. हमारे रोबोट को देखकर राइवल टीम के पसीने छूटते नज़र आते थे और कुछ सुंदरी टाइप के रोबोट्स उसका intro लेने की फ़िराक में लग गए.

जैसे ही मैच स्टार्ट हुआ और सामने वाला मरगिल्ला रोबोट हमारे गोल की तरफ बड़ा, हमने अपने रोबोट का पावर स्विच दबाया. नॉब को और उमेठा, और फिर पूरा उल्टा उमेठ दिया जब तक की वो स्विच बोर्ड से निकलकर हमारे हाथ में ना आ गया. मुआ टस से मस न हुआ और हमारा प्यारा हृतिक माताजी से बचपन में सुनी हुई कविता गाता हुआ सा प्रतीत हुआ ‘टेसू मेरा यहीं अड़ा, खाने को मांगे दहीबड़ा’.

उस दिन शोरगुल से भरे techkriti के मैच में रोने की बजाय जीवन में सबसे ज्यादा हंसी आई. आयोजकों ने दिल बड़ा करके हमारे रोबोट को बेस्ट ड्रेस्ड रोबोट का ख़िताब प्रदान किया और हमने रात भर पत्ते खेलकर इसे सेलिब्रेट किया.   
       
कई सालों बाद फिर एक forced नाईट आउट मारना पड़ा. देश, काल और परिस्थिति IITK से भिन्न थी और पांच दिनों का नवजात बेटा सोने से इनकार कर रहा था. अपनी माँ को वो चार दिनों में इतना पस्त कर चुका था की उसे रात को सँभालने का सौभाग्य मुझे प्रदान किया गया था. बच्चे के डायपर बदलते और आँखे मलते याद आ गया वो IITK का वो समय जब नाईट आउट हंसी ख़ुशी मारा करते थे. जीवन का तीसरा दशक दो साल पहले ही आगाज़ कर चुका था और जीवन इस कशमकश से गुज़र रहा था की जवानी अभी बाकी है या वृद्धावस्था का आरंभ हो गया है. शरीर पर फैट की सतहें बॉडी circumference को चार गुना कर चुकी थीं और सर पर बालों की डेंसिटी चार से विभाजित.  

मन में आया क्यों ना इस रात का सदुपयोग किया जाये और क्या भूलूं क्या याद करूं की तर्ज़ पर जीवन का एक क्विक अपडेट ले लिया जाये. याद आये IITK के वो शुरुवाती दिन जब पहली बार खिड़की से बाहर नाचते हुए मोर देखे थे. वैसे सुबह सुबह चीत्कार करते हुए मोर नींद में खलल डालते थे पर उनको पंख फैलाकर नाचता देख दिल खुश हो जाया करता था. वो कई दिन तो सीनियर्स और रैगिंग से बचते बचाते ही गुज़रे. रबड़ की चप्पल, बिखरे बाल और ओवरसाइज़ IIT Kanpur लिखी हुई T-shirt पहनकर खुद को किसी हीरो से कम नहीं समझा करते थे. वैसे IIT में एन्ट्री बिलकुल मोहल्ले और रिश्तेदारों के तीस-मार-खान की मानिंद ली गयी थी और दिन रात यही सपने देखा करते थे:

सारी दौलत, सारी ताकत   
सारी दुनिया पर हुकूमत
बस इतना सा ख़्वाब है

धीरे धीरे हकीकत सामने आई और IIT ने वो सिखाया जो आज तक का सबसे बड़ा सबक है. वहां रहकर समझ आया ‘बहुरत्ना वसुंधरा’ का अर्थ क्या होता है. भाई जिसको देखिये वही कमाल का इंटेलीजेंट और टैलेंटेड. IIT के बाद कई और इम्तेहान दिए और कई संस्थानों के दिग्गजों के साथ उठने बैठने का सौभाग्य मिला पर सच कहूं आज तक कहीं भी इतना टैलेंटेड क्राउड नहीं देखा. अगर ठेठ भाषा में कहूं तो IIT ने अपनी औकात दिखा दी. समझ आया की अपने अन्दर कुछ सुरखाब के पर नहीं लगे हैं, अगर जीवन में बाइज्जत सर्वाइव करना है तो मेहनत करनी ही पड़ेगी.   

इसके बाद सबसे प्रबल मेमोरी रही IIT के चार सौ के बैच की उन बीस मोहतरमाओं की जिनमे से पांच के पीछे सभी नटखट बालक भागा करते थे. एक बार किसी कन्या से बात कर लो तो सदियों तक फलसफे चलते थे. अंतराग्नि के दौरान बाहर से कन्याएं आया करती थीं और IIT में वह बहार की ऋतू मानी जाएगी. आज कई IITians की पत्नियाँ/गर्लफ्रेंड उन्ही चार दिनों की मेहरबानी हैं. वैसे हम उन दिनों भी अपने ही झुण्ड में पाए जाते थे. एक कार्ल मार्क्स के प्रकांड विद्वान मित्र कहा करते थे की सुंदरियों के सानिध्य के हिसाब से वर्ल्ड को haves एवं have nots की श्रेणी में बांटा जा सकता है और हमारी किस्मत में have nots को शुमार करना ही लिखा है. 

उस वक़्त की दार्शनिक चर्चाएँ जीवन के गूढ़ रहस्यों को भी चुटकी में आसान कर डालती थीं. ज्ञान, दर्शन और टाइम पास तीनों में बकवास बहुत काम आती है. एक बार डिस्कवरी चैनल देखते हुए मित्रगण बंदरों से अभिभूत हुए. एक स्वामी बन्दर दर्जनों बन्दारियों के झुण्ड को लेकर घूमा करता है और लोग मन ही मन बंदरों से इर्षा कर बैठे. इस बात को सुनते ही हम उन्हें धरती पर लाये और बोला अमां खुश रहो इंसान हो वरना उन दर्जन भर बंदरों में रह जाते जुसे झुण्ड का मालिक थप्पड़ मारकर रुकसत कर दिया करता है. वैसे जीवन में किसी चीज़ का मलाल नहीं रहा और कन्याएं न सही, हम फैज़ के इस शेर की तरह उनकी चर्चा से ही खुश हो जाया करते थे:

क़फ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे ख़ुदा, आज ज़िक्रे यार चले

एक बात याद करो तो कितनी बातें लड़ी की तरह याद आती हैं. याद है वो बरसात की उमस जब पंखा सर पर ऊँघता हुआ नज़र आता था, वो ज़ोरदार बारिश जो बंद होने का नाम ही नहीं लेती थी, वो असाइनमेंट जिसे पूरे पांच मिनट में कॉपी कर लिया जाता था, वो xerox किये हुए नोट्स जो ऐन मौके पर काम आते थे, वो mess का खाना जो किसी तरह निगलते ही बनता था, वो खटारा साइकिल जिसने पूरे ४ साल वफ़ादार साथी की तरह साथ निभाया, वो ख़ुशी जो दोस्तों के खुश होने पे यूँ ही चली आती थी, वो फोर्थ इयर के येल्लो पेज नोटिस जो नौकरियों का सन्देशा लाते थे, वो गले में अटकती हुई टाई जो इंटरव्यू में पहली बार पहनी गयी थी, वो फ्रेशेर्स नाईट, हॉल नाइट्स, दिवाली नाईट और मिट्टी के तालाब में लोटपोट कर खेली हुई होली जब किसी को भी पहचानना तक मुश्किल था, वो आइडियाज ऑफ़ विसिटिंग प्लेसेस, वो GPL, वो घर से आई हुई मिठाई, वो फ़ोन का इन्तेजार, वो PCO की लाइन और न जाने और क्या भी. इसके साथ की याद आता है जूनून मूवीज का, फिटनेस का, स्पोर्ट्स का, म्यूजिक का, quiz का, पढाई का, सपनों का, लाइब्रेरी में सोने का और कैंटीन की maggi का. कितनी सारी चीज़ें IIT पहली बार अनुभव की गयीं पर उनका विवरण तो आमने सामने की गुफ्तगू के लिए बचाकर रख लेते हैं.

कितना सुहाना था जहान की तभी नवजात ने फिर करुण क्रंदन आरम्भ किया. उसका दूध बनाते और डायपर बदलते बदलते बस यही महसूस हो रहा था :

मारा ज़माने ने असदुल्लाह खान तुम्हें
वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गयी?

वैसे आपकी कृपा से सब ठीक ठाक है. म्यूजिशियन बनने वाले आज बैंगलोर में सॉफ्टवेयर बना रहे हैं. अक्सर वे नौकरी छोड़ने की बातें किया करते हैं पर अंत में वीकेंड पर पॉपकॉर्न खाते हुए मूवी देखकर ही संतोष कर लेते हैं. भारत के असीम पिछड़े गाँव से आने वाले USA की सबसे बढ़िया लैब में काम कर रहे हैं. उनकी पोशाक और goggles देखकर तो महसूस होता है की हम ही गंवार रह गए. सदा आलस्य से घिरे रहने वाले अपनी कंपनी के मालिक हैं. जिन्हें अपने भविष्य की ढेले भर भी चिंता नहीं थी वे आईआईएम अहमदाबाद से MBA कर बड़ी कम्पनिओं का भविष्य संवार रहे हैं. अक्सर वे देश के हालात बदलने की भी चर्चा करते हैं. मा बदौलत भी सरकारी नौकरी में गुज़र बसर कर रहे हैं और दादी अम्मा की भाषानुसार कलेक्टर के पद पर विराजमान हैं. जीवन में जो मिला वो भी ठीक है, जो नहीं मिला पाया उसका भी दुःख नहीं. सच ही तो है :

दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है   


जीवन तो हमेशा ही थोड़ा है थोड़े की जरूरत है की अवस्था में रहेगा पर जिंदगी ख़ूबसूरत है और हमारी खुशकिस्मती थी की हम IITK में वो चार साल गुज़ार पाए. वहां बनाये दोस्त आज भी सबसे अज़ीज़ हैं और वहां बिताए पल आज भी स्मृति की सुनहरी दहलीज़ पर सहेज कर रखे हैं. उन पलों की बहुत याद आती है और अगर आज भी कभी वो निष्कपट, नटखट और बेमानी बकवास करने का दिल चाहे, तो मेरे दरवाजे आप सब के लिए हमेशा खुले हैं. 


Saturday, October 17, 2015

हमने माना की कुछ नहीं ग़ालिब

हिंदी में लिखने का फ़ितूर अभी भी जारी है। पिछली बार कुछ मित्रों ने कहा की बात अधूरी सी रह गयी तो आज पूरी किये लेते हैं।  सबसे आसान है ख्वाहिशों पर बात करना। बचपन से ये ख़्वाहिश रही की मैं मशहूर हो जाऊं।

मेरे अंदर यह पैदायशी हुनर है की मैं अपना टैलेंट और दूसरों की कमियां बहुत जल्दी पहचान लेता हूँ। मुझे पता था की मेरे अंदर एक संगीतकार छुपा है। चूँकि महफ़िलों में गिटार बजाकर गाते हुए लोग अप्प्रिशियेट किये जाते हैं, मैंने एक गिटार लिया और शान से संगीत सीखने पहुँच गया।  गुरूजी बोले संगीत की शुरूवात तो हारमोनियम से की जाती है और 'सा पा रे गा'  प्रैक्टिस कराने लगे।  पूरे तीन दिन की कड़ी मेहनत के बाद भी जब मामला 'सा पा रे गा' पर ही अटका रहा तो मुझे एहसास हुआ की गुरूजी मेरी प्रतिभा को दुनिया के सामने आने ही नहीं देना चाहते। वो दिन था और आज का दिन है, गिटार अकेला किसी कोने में अपनी किस्मत को रो रहा है। एक बार गाने का भी प्रयास किया। हर गाने के बाद लोग बोलते थे बेहतर है।  मेरे खुश होने से पहले ही श्रीमती जी बोल उठीं उनका मतलब था अभी बहुत सुधार की ज़रूरत है।

पुरानी ख़्वाहिश रही है की मैं सारे शायरों को समझ पाऊँ। चाहत थी की महफ़िलों में मौकनुमा शेर पे शेर कहे जायेंगे और लोग तारीफों के पुल बांधते ना थकेंगे। किताबें पढ़ना इतना आसान ना था तो काफी समय ग़ज़लें सुनकर गुज़ारा गया। सब ठीक ही चल रहा था पर एक दिन जब पांच साल का बेटा हिज़्र की ग़ज़लें गाते पाया गया तो श्रीमतीजी ने अल्टीमेटम दिया की घर में सिर्फ़ हनी सिंह के ही गाने चलाये जायेंगे। अब तो चलती हुई गाड़ी में महफ़िलें जमती हैं जगजीत, ग़ुलाम अली और मेहँदी हसन की। ये सुरक्षित तो नहीं कहा जायेगा क्योंकि पहाड़ी रास्तों पर अगर ड्राइवर को नींद आ जाए तो रिस्क हो सकता है पर ज़िद है तो ज़िद है जी।

एक बार किसी महफ़िल में एक मोहतरमा को शेर सुनाने आरम्भ किये।  हर शेर के बाद उनके चेहरे का कौतूहल बढ़ता ही जाता था और चार पांच के बाद तो ऐसा लगा उन्होंने साक्षात डायनासोर देखा है। मैंने कहा घबराइये नहीं मैं तो सिर्फ़ आपसे फ़्लर्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ। 'फ्लर्टिंग और आप' कहकर वो यूँ हंसी की उनकी आवाज़ आज तक कानों में गूंज़ती है। गनीमत थी अगर यह बात प्राइवेट रह जाती  पर बगल में श्रीमतीजी भी हँस रहीं थीं। अब जब भी वे इस वाक़ये की याद दिलातीं हैं मैं झट से फैज़ साहब का ये शेर सुना देता हूँ:

नहीं निगाह में मंज़िल तो ज़ुस्तज़ू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

अगर आप ये सोच रहे हैं की मैं एब्नार्मल था जो बचपन से ही शायरी में दिलचस्पी रखता था तो गलत होगा।सभी बच्चों की तरह मैं सचिन तेंदुलकर ही बनना चाहता था पर बुरा हो गली में खेलने वाले उन बच्चों का जिन्होंने मुझे ठीक से खेलने का मौका नहीं दिया। मैं अपना बैट तक ले के जाता था और तब भी वे मुझसे सिर्फ़ फील्डिंग कराते थे और अक्सर फील्डिंग भी ऐसी जगह जहाँ शायद ही बॉल आती।

ऐसा नहीं है मैंने कुछ सीखने की कोशिश नहीं की। स्विमिंग पूल की मेम्बरशिप के लिए पूरे महीने प्रयास किया और उसके बाद दो हफ्ते स्विमिंग कॉस्ट्यूम और कोच खोजने में लगाये । दो दिन स्विमिंग के बाद रियलाइज़ हुआ ये जुकाम के लिए ठीक नहीं। स्टैमिना बनाने के लिए टेनिस सीखना स्टार्ट किया और समझ आया की जब तक रैकेट अच्छा न हो, खेल नहीं जमता। बारह हज़ार का रैकेट लिया और एक हफ्ते के अंदर वज़न कुछ कम सा महसूस होने लगा। हाथ में थोड़ा दर्द था सो अभी कुछ महीनों उसे आराम दे रहा हूँ। ये आप बिलकुल मत समझियेगा की मैं खाली बैठा हूँ, एक जिम की मेम्बरशिप ले ली गयी है और आजकल मैं अपने लिए सही एक्सरसाइज गूगल कर रहा हूँ। आपको ये जानकार ख़ुशी होगी की जल्दी ही मैं अपनी वो ट्राउज़र पहन पाऊंगा जो सात साल से मेरे पतले होने का इंतज़ार कर रही हैं।

मुझे पुस्तकें पढ़ना पसंद है और बड़ी तमन्ना रही है की लोग मुझे इंटेलेक्चुअल समझे। घर के ड्राइंग रूम में करीने से कुछ पढ़ी हुई और बहुत सारी बिना पढ़ी हाई फाई किताबें रखी हैं। पुस्तकें पढ़ते पढ़ते एक बार चेतन भगत की किताब हाथ लगी और रियलाइज़ हुआ की मेरे अंदर भी एक लेखक छुपा बैठा है। आइडियाज की कमी है पर कभी कभी लगता है अपनी आत्मकथा ही लिख डालूँ। अगर आप सोचते है की यह अभी का फितूर है तो आप सरासर गलत हैं। मैं सोलह साल का था जब अपनी आत्मकथा लिखनी आरम्भ की थी। पिताजी ने पहली बार न्यू ईयर डायरी न्यू ईयर पर दी थी वरना डायरी तो साल गुज़र जाने पर ही नसीब होती थी। उसी दिन जीवन के पच्चीस पन्ने लिखे गए थे पर वो प्रोजेक्ट अभी तक बाकी है।

जल्दी ही मैं एक प्यारा सा कुत्ता भी पालना चाहता हूँ। बचपन से ये अरमान रहा है पर इतने सालों के अध्ययन के बाद चला है की भारत में मौजूद 151 से भी ज्यादा प्रजातियों में से कौन सी मेरे लिए सबसे उपयुक्त रहेगी। बस अब उसे घर लाने की ही देर है वरना उसका नाम, ट्रेनिंग स्केडुल, परफेक्ट खाना सब ठीक कर लिया गया है।

वैसे मेरी सबसे बड़ी स्ट्रेंथ प्लानिंग है और मैं बड़े सलीके से पूरे साल भर का टारगेट सेट करता हूँ। श्रीमतीजी इन्हे हवाई किले बोलना पसंद करती हैं पर मैं बुरा नहीं मानता। उनके हिसाब से मैं अपने एम्बिशन के मुकाबले कितना नालायक हूँ पर देखिये प्लान तो सिर्फ़ एक मापदंड है यह जानने का की की आप अपने उद्देष्य के कितने करीब पहुंचे। आपने भी तो बचपन में पढ़ाई की मेज के सामने करीने से बनाया हुआ टाइम टेबल चिपकाया होगा, ज़रूरी नहीं की उसे फॉलो किया ही जाए।

अबतक समझ ही गए होंगे की मेरे बिटर हाफ से मेरी ख़ुशी देखी नहीं जाती। जब भी मैं कोई गुब्बारा फुलाता हूँ वो झट से उसे फोड़ देती हैं। दुनिया में सच्चे जौहरियों की सख़्त कमी है। मैं कहता हूँ देखो चारों तरफ कितने बेवकूफ़ भरे पड़े हैं और मेरी मुसीबत यह है की मैं उन्हें बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस पर श्रीमतीजी तपाक से बोल उठती हैं की तुम अपने आप को बर्दाश्त कैसे करते हो। वैसे वो दिल की बुरी नहीं हैं और जब कभी मैं उनके उलाहनों से दुखी हो जाता हूँ तो वो समझाती हैं की बीवी के उलाहनों ने ही तुलसीदास को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया।

असल में मेरा मोल सिर्फ मैंने ही समझा है। अरे उन्हें तो मेरा कमाल का सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी नहीं दिखता। चलो क्या हुआ अगर उसपर सिर्फ मुझे ही हंसी आती है पर उसे समझने के लिए जिस अक्ल की ज़रुरत है खुदा ने वो भी तो सबको नसीब नहीं की। वो कहती हैं तुम तो बेफिजूल ही आप से अभिभूत हो पर बताइये अगर कोई इतना कमाल का आदमी हो तो आप क्या उससे अभिभूत नहीं रहेंगे।

वैसे अगर ये मान भी लें की मुझे कुछ नहीं आता तो सच बात तो ये है की मेरे कुछ ना सीख पाने का कारण मेरी व्यस्तता रही है। काम का तो आलम ये है की उसके बारे में सोचते सोचते ही समय चला जाता है, यहाँ तक की काम करने का भी समय नहीं मिलता। आप शायद मानेंगे नहीं पर मेरा सबसे व्यस्त दिन तो छुट्टी वाला जाता है क्योंकि मैं बस सोचता ही रह जाता हूँ की कौन सा काम पहले किया जाये।

मान लिया हमारी यही नियति रहेगी पर आप ये शेर ही सुन लीजिये:

या रब ज़माना मुझको मिटाता है किसलिए
लौहे जहां पे हर्फ़े मुक़र्रर नहीं हूँ मैं

उम्मीद है इसको पढ़कर आप थोड़ा इम्प्रेस हुए होंगे, इसे कॉपी पेस्ट करने का यही उद्देश्य था। असल में इतनी उर्दू तो मुझे भी नहीं आती। अब इस लेख को ख़त्म किया जाये क्योंकि अगर आप इसे पहली बार पढ़कर पक रहे हैं तो सोचिये मुझे इसे लिखते हुए कितनी बार पढ़ना पड़ा होगा।

अगर बातों ही बातों में आपने यहाँ तक पढ़ लिया तो मैं शायद इस शेर की तरह तो बन ही गया हूँ:

हमने माना की कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ्त हाथ आये तो बुरा क्या है  

Sunday, September 20, 2015

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे


आज ना जाने क्यों हिंदी में लिखने का मन हो उठा।  शायद पुराना समय याद करते करते यह भी याद आया की एक वक़्त अंग्रेजी परायी हुआ करती थी।  IIT  कानपुर मे एक मैगजीन छपती है Meander  पहली बार उसमें हिंदी में ही लेख लिखा था और कमाल देखिये वह पसंद भी किया गया  कुछ दिनों बाद अपना ब्लॉग लिखना शुरू किया पर जीवन जैसे आगे बढ़ा अंग्रेजी की प्राथमिकता आने लगी ।  

अगर आपको लग रहा है की मैं यह लेख अपने हिंदी प्रेम के लिए लिख रहा हूँ तो ऐसा नहीं है।  मैं तो सिर्फ जीवन के कुछ पुराने दिन फिर जीना चाहता हूँ।  अभी डीएम दार्जिलिंग के राजसी घर में बैठा हूँ पर जाने  क्यों याद आता है उस छोटे से शहर का वो घर जहाँ माँ सर्दियों की धूप में बाहर बैठाकर हिंदी पढ़ाया करती थी।  माँ हिंदी की टीचर है और इसी साल रिटायर होगी।  

क्या भूलूँ क्या याद करूँ की तर्ज़ पर बहुत सारे ख्याल समय और स्थान की सीमाओं को तोड़ते हुए चले रहे हैं।  दादी की गोद में सुनी हुई वो लोरी और वो कहानियाँ , वो समय जब जीवन माँ से शूरु होता था और माँ पर ही खत्म और फिर युवावस्था में इंजीनियरिंग के लिए कोचिंगों के चक्कर  

वो दिन याद है जब IIT में सिलेक्शन हुआ पर उसके बाद IIT में पढाई की जगह याद है पीसीओ की वो लम्बी लाइन जिसमें पांच मिनट फ़ोन करने के लिए घंटों खड़े रहना पड़ता था  यह भी याद आता है की उन दिनों हम लेटर लिखा करते थे (जो अभी भी घर के किसी कोने में पुराने एलबम्स की तरह पड़े हैं)  आज के मोबाइल इंटरनेट और सोशल मीडिया में रचे बसे लोग वो दिन शायद ही समझ पायें।  आईएएस में सिलेक्शन के बाद वो दिन याद हैं जब सेलिब्रिटी की तरह महसूस होता है।  उतनी ख़ुशी तो शायद जीवन में कम ही नसीब होती है।   

जीवन में सपने तब भी थे, सपने अभी भी हैं।  दुनिया देखनी है, पढ़ना है, संगीत सुनना है, सीखना हैग़ालिब, फैज़ और मीर जैसे शायरों को समझना है, शायद लिखते भी रहना है।  कुछ सपने शुरू से ही आँखों में हैं पर कुछ नए हैं  इस बात पर ग़ालिब का यह शेर कैसे भूल सकता हूँ 

‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले’ 

आप में से कई लोगों ने Ship of Theseus मूवी देखी होगी।  इसका नाम एक फिलोसोफी के सिद्धान्त पर है की अगर एक नाव के धीरे धीरे कुछ पाटे  बदलें जाएँ और एक समय बाद अगर नाव में कोई भी पुराना पटरा  ना हो तो क्या वो वही नाव रहेगी या पूरी तरह से नयी हो जाएगी।  मैं वही हूँ के बदल गया हूँ इस बात का जवाब आसान नहीं होगा  

आज ये लिखते हुए शिव कुमार बटालवी की यह पंजाबी नज़्म याद जाती है  

'किन्नी बीती ते किन्नी बाकी है, मैनु एहो हिसाब लै बैठा'

आपने अगर इसे नहीं सुना है तो तुरंत youtube पर इसे जगजीत की आवाज़ में सुनें  जीवन के कई मलालों में सबसे बड़ा मेरे लिए जगजीत को कभी लाइव नहीं सुन पाना रहा है।  

जीवन भी विचित्र है और अगर यह समझ में जाये की इसे क्या चाहिए तो समझिए आधी समस्या का समाधान हो गया।  मैंने अपने काम और जीवन को अपने ब्लॉग से अलग रखने का निर्णय लिया था पर आज ऐसा लगा की कुछ दिल की बात भी लिखनी चाहिए।  बचपन में गांधी जी की जीवनी पड़ता था, उसमें उन्होंने सूरदास की ये दो पंक्तियाँ हैं और मुझे अपनी स्थिति भी आज ऐसी ही महसूस होती है

‘मेरो मन अनत  कहाँ सुख पावे 
जैसे उडी जहाज को पंछी पुनि जहाज पे आवे’